आज से लगभग हजार वर्ष पहले की बात है, किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। बचपनावस्था में ही चारों विद्यार्जन के लिए कान्यकुब्ज चले गए। वहीं एक गुरुकुल में चारों ने बारह वर्षों तक विद्याध्ययन किया और वे चारो विद्वान बन गए।
एक दिन चारों मित्रों ने आपस में विचार विमर्श किया कि हम लोग सभी विद्याओं में निपुण हो चुके हैं, अतः अब गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपने घर की तरफ प्रस्थान चाहिए। ऐसा विचार कर चारों ने गुरुदेव से आज्ञा ली और अपनी अपनी पोथी लेकर अपने घर की तरफ चल पड़े।
काफी दूर चलने पर उन्होंने देखा कि जिस रास्ते पर वो चल रहे थे वो दो भागों में बट गया है, यह देख चारों मित्र ऊहापोह की स्थिति में पड़ गए। वे चारो भाई असमंजस कि स्थिति मे आ गये कि हमे अब किस रास्ते पर जाना चाहिए । इस बात का निर्णय करने के लिए चारो भाई एक जगह बैठ गए। और विचार करने लगे, उनमें से एक ने पूछा, ” किस रास्ते से चलना चाहिए?”
उसी समय पर ही समीप के नगर में एक महाजन का पुत्र मर गया था, उसके दाह संस्कार के लिए वहां के लोग महाजन के मृत लड़के को श्मशान घाट की ओर ले जा रहे थे।
उस शवयात्रा को देखकर उन चारों मित्रों में से एक ने अपनी पोथी निकाली और उस पोथी को देखकर उसने कहा ” महाजन लोग जिस रास्ते से जाएँ, उसी रास्ते से दूसरे लोगों को भी जाना चाहिए। अतः हमें भी महाजन लोगों के साथ चलना चाहिए।” फिर क्या था, सभी मित्र महाजन लोगों के साथ चल पड़े जब वे श्मशान घाट पहुँचे तो उन लोगों ने एक गधा देखा। तब तीसरे ने अपनी पोथी निकाली और उसे पढ़कर उसने कहा कि – “उत्सव के समय, आपत्तिकाल में, दुर्भिक्ष पड़ने पर दुश्मनों से घिर जाने पर, राजसभा में और श्मशान में जो साथ रहता है, वही बंधु होता है, अतः यह गधा भी हमारा बंधु है।”
तीसरे की बात सुनकर कोई उस गधे को गले लगाने लगा और कोई उसके पैर धोने लगा। उसी समय एक ऊँट दिखाई दिया, चारों मित्रों में से किसी ने कभी ऊँट नहीं देखा था। अतः, सब के सब तर्क वितर्क करने लगे कि यह क्या है।
तब चौथे पंडित ने पोथी निकाली और उसे देखकर कहा “धर्म की गति बहुत तीव्र होती है, यह निश्चय ही धर्म होगा। अतः मित्र को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए।”
तब चारों ने मिलकर गधे को ऊँट की गर्दन से बाँध दिया, इस घटना की खबर किसी ने गधे के मालिक धोबी को जाकर दे दी। धोबी यह बात सुनकर बहुत नाराज़ हो गया तथा मोटा डंडा लेकर चारों को पीटने के लिए आया। लेकिन तब तक चारों मित्र वहाँ से चल पड़े थे। धोबी मन मारकर अपने घर को लौट गया।
इधर धीरे – धीरे जब चारों मित्र कुछ दूर और आगे बढ़े तो उन्हें रास्ते में एक नदी मिल गई, नदी की धारा में पलाश का एक पत्ता बहता हुआ आ रहा था। उसे देखकर पहले पंडित ने कहा, ” यह पत्ता हम लोगों को उस पार पहुँचा देगा।”
इतना कहकर वह नदी में कूद गया, उसके कूदते ही पत्ता फट गया और वह नदी में डूबने लगा। तब दूसरे पंडित ने उसकी चोटी पकड़कर कहा, “सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर ज्ञानी लोग आधा भाग छोड़ देते हैं और आधे से काम चलाते हैं।”
ऐसा कहकर उस पंडित ने पहले पंडित को बचाने के लिए उसका सिर काट दिया।
फिर शेष बचे तीनों पंडित आगे बढ़े। कुछ दूर चलने पर उन्हें एक गाँव मिला। तीनों गाँव में प्रवेश कर एक जगह बैठ गए और आपस में विचार करने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिए? तथा अब अपने विवेक से काम लेना चाहिए।
उधर पास वाले गावं वालो को इन पंडितों के विषय में जानकारी मिली तो वे लोग इनके पास इकट्ठे होकर गए और उन्होंने इन्हें गाँव वालों के घर भोजन के लिए आमंत्रित किया, फिर इन पंडितों को गाँव वाले अलग-अलग घरों में ले गए।
एक गृहस्थ ने एक पंडित को घी शक्कर की बनी हुई सेवइयाँ खाने को दीं, सेवइयाँ देखकर पंडित जी ने पोथी निकाली और विचार किया, ‘अरे ये सेवइयाँ तो दीर्घ सूत्री अर्थात् लंबे लंबे सूत्रों वाली हैं’, दीर्घसूत्री व्यक्ति तो जल्दी ही नष्ट हो जाता है। अतः इसे खाकर मैं भी जल्दी ही नष्ट हो जाऊँगा’ यह विचार कर उस पंडित ने भोजन का त्याग कर वापस लौट गया।
दूसरे गृहस्थ के घर में दूसरे पंडित को रोटी खाने को मिली, रोटी देखकर पंडित जी ने विचार किया कि अधिक विस्तार वाली वस्तु स्थायी नहीं होती, यदि मैं इसे खाऊँगा तो मेरी आयु भी कम हो जाएगी, यह सोचकर उसने भी भोजन करना छोड़ दिया और भूखे ही वहां से चला आया।
ऐसे ही तीसरे पंडित को किसी गृहस्थ ने बड़ा खाने को दिया, बड़ा देखकर उसने विचार किया कि इसमें तो छिद्र है छिद्रयुक्त वस्तुओं का प्रयोग करने पर आपत्तियाँ बढ़ जाती हैं। जिससे व्यक्ति का जीवन आपत्तियो से घिर जाता है, कहीं मैं भी इसे खाकर किसी आपत्ति में न पड जाऊँ और समस्या हो जाये यह सोचकर वह भी भोजन छोड़कर उठ गया और गृहस्थ के घर से बाहर आ गया।
इस प्रकार से, वे तीनों ब्रहमण किताबी ज्ञान के कारण भूखे रहे और लोगों के उपहास के पात्र बने। उनके अधिक ज्ञान के कारण उनको भोजन का एक निवाला भी नसीब नही हुआ।
सच ही कहा गया है कि शास्त्रों में कुशल रहने पर भी लोक व्यवहार से अनजान व्यक्ति दूसरों के उपहास के पात्र बनते हैं। और उनकी हंसी का कारण भी। अत:ज्ञान का प्रयोग जहां जरुरत हो वही करना चाहिए नही तो तुम हमेशा ही किसी के उपहास के पात्र बनते रहोगे।
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