Hindi Story Garib Kaun

प्रेरक कहानी गरीब कौन

प्राचीन काल की बात है, एक जंगल में एक प्रऋषि कुटिया बनाकर रहते थे। ऋषि सदैव चिंतन मनन एवं ग्रंथ रचना में लीन रहते, मन में विशिष्ट प्रकार का भाव आने पर वे ग्रंथ की रचना करते। उनकी पत्नी सदैव उनकी सेवा में लगी रहती। सदा की भांति उस दिन भी त्रऋषि कुशासन पर बैठे हुए गंभीर मुद्रा में किसी ग्रंथ की रचना करने में तल्लीन थे। उनका प्रशस्त ललाट उनकी विद्वत्ता की साक्षी दे रहा था। मुख पर अत्यंत ही सात्विक भाव दृष्टिगोचर हो रहा था। आयताकार भोजपत्र के पन्ने समीप ही बिखरे पड़े थे जिस पर उनकी सुंदर लिखावट अंकित थी। कब दिन बीता, शाम हुई और रात का अंधकार भी आ गया, इसका उन्हें पता ही नहीं चला। चलता भी कैसे? अंधकार होने के पहले ही उनकी पत्नी ने दीपक जो जला दिया था, दीपक में अरंड का तेल समाप्त होने से पहले ही पुनःभर दिया जाता।

पूर्व दिशा में गगनमंच पर बाल अरुण की लालिमा अपना सौंदर्य बिखेरने लगी, पक्षियों का मन भावन कलरव भी होने लगा, लेकिन ऋषि ग्रंथ रखना में लगे रहे चारों ओर नीरवता का वातावरण है, हल्की-हल्की मंद एवं शीतल पवन चल रही है। कुटिया के बाहर पौधे लगे हुए हैं, एक ओर कुछ हटकर तुलसी के पौधे लहरा रहे हैं। इन सब तथ्यों से स्पष्ट प्रतीत हो यह तपोवन है। केले के रहा है कि ऋषि जिम तपोवन में अपनी पत्नी के साथ रह रहे हैं, इसके बारे में उन्हें जानकारी नहीं है कि यह किस राजा के जिम में है। उन्हें जानने की आवश्यकता भी नहीं है, आकाश ही उनकी छत है. पृथ्वी की साले के कंदमूल और खेतों में बचे अन्न कण ही उनका आहार है। जंगल के जीवन जंतु ही उनका परिकार है। सरिता सरोवर और झरने से वे अपनी प्यास बुझाते हैं। फिर उन्हें अधिक जानने की आवश्यकता है। क्या है? निरपेक्ष भाव से अपनी दिनचर्या में लगे रहते हैं।

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जिस राज्य की सीमा में यह तपोवन है उसका शासक प्रजापालक है, प्रजा सुखी है और पूरी तरह निर्भय होकर रहती है शासन व्यवस्था में कहीं कोई कमी नहीं है। राज्य की न्याय व्यवस्था अत्यंत ही चुस्त दुरुस्त है, प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने कर्म में लगा हुआ है, हर हाथ को काम है और हर खेत में पानी। धरती सोना उगलती है, न कभी अनावृष्टि होती है और न ही अतिवृष्टि। न कोई गरीब है और न ही कोई पीड़ित। सब ओर समरसता है कहीं भेद भाव नहीं है प्रजा हर तरह से सुखी है।

बावजूद इसके राजा सदैव अपने गुप्तचरों से पता लगाता रहता है कि राज्य में कहीं कोई गरीब न हो। एक दिन एक गुप्तचर राजा को सूचना देता है कि जगंल में एक ऐसा ऋषि दंपति है जिसके पास मूलभूत आवश्यकताओं का अभाव है, ताड़पत्र का बना हुआ एक छोटा-सा आश्रम, एक नन्हा-सा दीपक और पहनने के लिए नाममा का वस्त्र तथा एक मृगछाला। वर्षा, शीत और धूप सहन करते करते उनकी त्वचा काली और कड़ी हो गई है। राजा का आदेश होता है कि पर्याप्त सामग्री लेकर आश्रम में पहुँचा दी जाए। आदेश का पालन होता है, अनुच सामग्री लेकर आश्रम के द्वारा पर खड़े हो जाते हैं।

अनुचरों को हलचल से लेखन कार्य में लीन ऋषि का ध्यान भंग होता है। वे सरकंडे की बनी अपनी लेखनी एक ओर रख देते हैं और संकेत से उनके आने का कारण पूछते हैं। अनुचर सामग्री की ओर संकेत कर उनसे ग्रहण करने के लिए निवेदन करते है कि राजा ने भिजवाया है।

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ऋषि बुलंद स्वर में कहते हैं- “जाओ, इसे किसी गरीब को दे दो,” फिर, वे लिखने में तल्लीन हो जाते हैं। अनुचर लौट आते हैं और राजा से सारी बात बताते हैं। राज मंत्री से अपना परामर्श देने को कहता है, मंत्री कहता है-“हे राजन् ! दाता स्वयं न जाकर अनुचरों को भेजे तो ग्रहण करने वाला अपना अपमान समझता है,” राजा मंत्री का संकेत समझ जाता है।

दूसरे दिन राजा अपने मंत्रियों, अनुचरों एवं अंगरक्षकों के साथ पर्याप्त सामान लेकर ऋषि-दंपति के पास पहुँचता है। शोर सुनकर ऋषि का ध्यान भंग होता है। पहले की तरह ही वे आने का कारण पूछते हैं। राजा आगे आकर विनम्र स्वर में कहता है- “महात्मन् ! जिस कुटिया में आप रहते हैं, वह मेरे राज्य की सीमा में है मैं यहाँ का राजा हूँ, मैं कुछ सामग्री आपकी सेवा में लाया हूँ, इसे स्वीकार कर मुझे उपकृत करें।”

लेकिन, ऋषि कल की भाँति ही आज भी कहते हैं- “मैंने कल ही कह दिया था कि इसे किसी गरीब को दे दो।” ऋषि के ये शब्द राजा को कटु नहीं बल्कि अभिमान से भरे प्रतीत होते हैं। उसे आवेश आ जाता है। वह ऋषि से कहता है- “क्षमा-कीजिए, हमारे राज्य में आपके अतिरिक्त कोई गरीब नहीं है, यही समझकर आपकी सेवा में यह सामग्री लाया हूँ, यदि आप इसी भाँति दीन-हीन अवस्था में रहना चाहते हैं तो आपकी इच्छा मैं क्या कर सकता हूँ?” कहकर राजा सामग्री के साथ लौट आता है।

राजा लौट आता है, लेकिन चिंता उसे घेर लेती है। उसे चिंतित देख रानी कारण जानने का आग्रह करती है तो वह सारी बात बता देता है। रानी सुनती है और फिर करुणापूर्ण वाणी में कहती हैं- “राजन् ! आपने यह अच्छा नहीं किया शायद आप इस असाधारण पुरुष को नहीं जानते, वे महान् शिवभक्त हैं। खेतों में से बचे कण चुनकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं, इसलिए उनका नाम कणाद पड़ा। आपने यह एक बार भी नहीं सोचा कि किसे दान देने जा रहे हैं,। आपका सौभाग्य अच्छा था कि उन्होंने शाप नहीं दिया। तुरंत वहाँ जाकर आप महर्षि से क्षमा याचना कीजिए, विलंभ न कीजिए महाराज।”

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अर्द्धरात्रि का निस्तब्ध वातावरण और महर्षि कणाद की कुटिया। राजा ऋषि को प्रणाम करता है और सिर झुकाकर खड़ा हो जाता है। महर्षि की दृष्टि राजा पर पड़ती है। राजा क्षमा-याचना करता हुआ कहता है- “महर्षि! मुझसे बड़ी भारी भूल हुई, मैं आपके संबंध में नहीं जानता था।” तब महर्षि सहज भाव से कहते हैं- “मैं आपके राज्य में रहता हूँ, लेकिन मैं कभी आपके पास नहीं गया, आप हो आधी रात को मेरे पास आए हैं, अब बताइए, गरीब कौन है?”