Dronacharya aur Eklavya ki Kahani | एक योद्धा जिसने गुरु शिष्य के रिश्तो को महान बना दिया – एकलव्य की गुरुदक्षिणा

काफी समय पहले की बात है | हस्तिनापुर के जंगलो मे भीलो के एक सरदार रहते थे जिनके एक पुत्र था जिसका नाम एकलव्य था |

एकलव्य धनुष विद्या मे बहुत निपुण थे | एकलव्य एक बार भील बच्चो के साथ वन मे घूम रहा था उसके नज़र एक फल पर पडी जो दूर उचाई पर लगा हुआ था | कुछ लडको ने तीर चलाकर उसको तोडने का प्रयास किया परंतु वो असफल रहे अंत मे एकलव्य ने उसको एक तीर चलाकर नीचे गिरा दिया |

उन दिनो हस्तिनपुर मे गुरु द्रोणाचार्य राजकुमारो को अपने आश्रम मे धनुष विद्या सिखा रहे थे वो बहुत कुशल धनुरधारी थे उनका यश चारो दिशाओ मे फैला हुआ था थ| एकलव्य ने भी गुरु द्रोणाचार्य से धनुष विद्या सीख्नने की इच्छा हुई, एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम मे पहुंचा | उस समय द्रोणाचार्य राजकुमारो को आश्रम मे धनुष संचालन सिखा रखे थे | सभी राजकुमारो के एक एक करके एक गोल चूडी के भीतर से बाण चलाकर चिडिया की आंख पर निशाना साधना था लेकिन कोई भी राजकुमार उस लक्ष्य का भेदन नही कर पाया |

द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछा कि “क्या तुम निशाना लगा सकते हो?”
एकलव्य ने उत्तर दिया कि “जी हा मै लगा सकता हू” और एकलव्य ने उस चिडिया की आंख पर सही निशाना लगा दिया उसके इस प्रकार के कार्य से गुरु अति प्रसन्न हुये, गुरु की प्रसन्नता देखकर एकलव्य ने अपने इच्छा प्रकट की कि “गुरु जी मै आपका शिष्य बनकर धनुष विद्या सीखना चाहता हू |
गुरु द्रोणाचार्य बोले “मै राजकुमारो को ही विद्या देने के लिए वचनवद्ध हू” | एकलव्य बोला “मै तो आपको मन से गुरु मान चुका हू परंतु मुझे आपकी कृपा प्राप्त ना हो सकी” यह कहकर वहा से चला गया |

See also  हिन्दी कहानी - नया दीवान - Hindi Kahani Naya Deewan

एकलव्य ने बन मे द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और वहा से बाण चलाने का अभ्यास करने लगा | कुछ ही समय बाद वह बाण चनाले मे निपुण हो गया |

एक दिन सभी राजकुमार जंगल मे शिकार खेलने गये अचानक उनके घोडो के चारो तरफ बाण गड गये जिससे वे आगे जाने मे अस्मर्थ हो गये |
राजकुमारो ने देखा एक व्यकित धनुष बाण लिए किसी की बनी मिट्टी की मुर्ति के प्रतिमा के सामने बैठा था, राजकुमारो को समझ आ गया कि ये बाण जरूर इसी ने चलाया है | राजकुमारो ने उस व्यक्ति से पूछा आप कौन है ? आप ने बाण चलाना कहा से सीखा? तब उस व्यति ने जवाब दिया कि “मेरा नाम एकलव्य है मैंने गुरु द्रोणाचार्य से धनुष विद्द्या सीखी है यह द्रोणाचार्य जी की प्रतिमा है” |
यह बात सुंनकर राजकुमारो को विस्वाश नही हुआ उन्होने ने सोचा कि गुरु जी ने तो केवल राजकुमारो को धनुष विद्या सिखाने को कहा था फिर इसको कैसे सिखाया | यह सब देखकर अर्जुन बहुत देखी हो गये क्योकि धनुष विद्या मे वो अपने को सबसे निपुण मानते थे, राजकुमारो ने हस्तिनापुर लौटकर गुरु द्रोणाचार्य को सारी घटित घटनाओ के बारे मे अवगत कराया |

समय बीतता गया एक दिन गुरु द्रोणाचार्य वन मे एकलव्य के पास गये एकलव्य ने आदर सहित गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और कहा “गुरुदेव मैंने तो आपको तभी से गुरु मान लिया था तथा आपकी पतिमा बनाकर मैने ये विद्या सीखी है” यह धनुष विद्या आप के आशिर्वाद का ही फल है |
द्रोणाचार्य कुछ देर तक सोचते रहे कि मैंने तो अर्जुन को सर्वश्रेठ धनुष धारी का आशिर्वाद दिया था और कहा था कि तुम संसार के अकेले ऐसे धनुरधारी हो जिसके समान कोइ नही है, पर एकलव्य तो अर्जुन से बहुत आगे निकल गया |
द्रोणाचार्य बोले “कि मै तुम्हारी विद्या से अति प्रसन्न हू यदि मुझे गुरु मानते हो तो मुझे गुरु दक्षिणा दो” एकलव्य ने हाथ जोडकर कहा “आप मेरे गुरु जो गुरुदक्षिणा आप मांगेगे वही आप को दूंगा”, द्रोणाचार्य बोले”मुझे गुरुदक्षिणा मे तुम्हारा दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए” एकलव्य बिना किसी सोच के उन्होने अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा के रूप मे भेट कर दिया|

See also  हिन्दी स्टोरी  - चार मूर्ख विद्वान की कहानी | Hindi Story

इस कहानी से हमे ये सीख मिलती है कि यदि लगन और परिश्रम से कोई भी कार्य किया जाय तो उसमे सफलता निश्चित मिलती है एकलव्य की तरह गुरु भक्त वाले लोग अब नही मिलेंगे |