आज आप सभी प्रिय पाठको के लिए हम बहुत ही सुंदर गज़ल / गीतिका लेकर आये है जो निश्चित रूप से आप सभी को बहुत पसंद आयेंगे। आप सभी इस लेख को शुरु से अंत तक जरूर पढे। इस लेख मे प्रस्तुत गज़ल / गीतिका स्व. डा0 शिव नारायण शुक्ल जी द्वारा रचित बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है।
गज़ल / गीतिका
1 – अब नगमें के तार न छेड़ो, सोता है संसार न छेड़ो ॥1 ॥
तुम्हें नहीं जो छेड़ रहा है, उसको तुम भी यार! न छेड़ो ॥2॥
भौसम की इस मस्त फिजा में, यह गमजदा सितार न छेड़ो ॥3 ॥
यदि इन्सान बने रहना है, मजहब का उद्गार न छेड़ो ॥4 ॥
दो का एक न बनना हो तो, इश्क का कारोबार न छेड़ो ॥5॥
2 – जब से हम उस तरफ आने-जाने लगे। धड़कनों में किसी की समाने लगे ॥1 ॥
उनसे हमवार यूँ ही नहीं हम हुए। ऐसा करने में हमको जमाने लगे ॥2॥
जो वतन के लिए जेल में मर गये। वे ही इतिहास में माने-जाने लगे ॥3 ॥
मद में बेहोश हो अपने पैरों पे हम। अब कुल्हाड़ी स्वयं ही चलाने लगे ॥4॥
कल जिन्हें झोपड़ी भी मयस्सर न थी। आज देखो महल वे सजाने लगे ॥5॥
धाक जिनकी समूचे समुन्दर पे थी। वे सफीने भी अब डगमगाने लगे ॥6॥
3 – अपनी सुबहोशाम सौंप दी, उम्र ये तमाम सौंप दी ॥1 ॥
उनसे जो मिली थी जिन्दगी, वो उन्हीं के नाम सौंप दी ॥2॥
पाप-पुण्य नेकी औ बदी, हमने राहे-आम सौंप दी ॥3 ॥
दिल में जो बसी हुई थी वे, ख्वाहिशें तमाम सौंप दी ॥4॥
थाती हर्ष की, विषाद की, उनको वे लगाम सौंप दी ॥5॥
4 – हमें देने वाले न कम दे रहे हैं। मगर जो भी देते हैं, गम दे रहे हैं॥1 ॥
मोहब्बत की राहों को बदनाम करके। वो व्यवहार में पेचोंखम दे रहे हैं।॥ 2 ॥
धड़कता हुआ दिल कहीं और देके।कहीं स्वांस अपनी गरम दे रहे हैं ॥3 ॥
मिटाकर सहज बन्धुता की डगर को। घृणा, शंका, डर, वे शरम दे रहे हैं॥4॥
ये है दौर कैसा? लफंगे-लुटेरे । प्रजातन्त्र को आज दम दे रहे हैं ॥5॥
धरा औ गगन, पवन, जंगल, समुन्दर। हमें स्रोत सुख का न कम दे रहे हैं ॥6॥
हैं बस आदमी हम, न हिन्दू, न मुस्लिम । वो नाहक मजहबी भरम दे रहे हैं ॥7॥
5 – फिर भी अपनी बात कहते ही रहे ॥1 ॥
राह में रोड़ा बने पत्थर न कम। फिर भी झरने थे कि बहते ही रहे ॥2॥
झोपड़ी बेखौफ थी भूकम्प में। जबकि ऊँचे भौन ढहते ही रहे ॥3 ॥
बाग में काँटों की साजिश कम न थी। फूल फिर भी खिलते-हँसते ही रहे ॥4॥
6 – सभी मंजर बदलते जा रहे हैं। समय के स्वर बदलते जा रहे हैं ॥1॥
प्रदूषित हो रहे सम्बन्ध सारे । हमारे घर बदलते जा रहे हैं ॥2॥
ये ऐसा दौर जिसमें सिद्धियों के। सभी मन्तर बदलते जा रहे हैं ॥3॥
पुराना प्रश्न ज्यों का त्यों वही है। मगर उत्तर बदलते जा रहे हैं ॥4॥
हवा का रुख बदलता देख करके । परिन्दे पर बदलते जा रहे हैं ॥5॥
7 – मुझे दुनिया से तलबगारी नहीं है। ये दुनिया कभी भी हमारी नहीं है ॥1 ॥
किसी फूल-फल पर न अधिकार मेरा। ये दुनिया तुम्हारी, हमारी नहीं है।॥2॥
ये सच है तुम्हारे सिवा जिन्दगी में। किसी और से मेरी यारी नहीं है॥3 ॥
तुम्हें ख्याल मेरा तो रखना ही होगा। तुम्हारी क्या कुछ जिम्मेदारी नहीं है ॥4॥
8 – जिसको दुनिया मान रही दीवाना है। भरा खुशी से उसका ही पैमाना है॥1॥
लोग टटोल रहे मस्ती बाहर-जग में। पर जो खुद में मस्त वही मस्ताना है।॥2॥
अगर पूजना है ईश्वर, उसको पूजो। जिसका चूल्हा बुझा, न घर में दाना है ॥3॥
मेहनतकश मजदूर देवता इस युग के। बहुत दिनों के बाद इसे पहचाना है॥4॥
मन्दिर-मस्जिद में है भेद नहीं कोई। ‘कर्म’ सभी का पूजनीय यह जाना है ॥5॥
दुनिया राह खोजती है मयखाने की। दीवाने को दुनिया ही मयखाना है॥6॥
9 – खिला केवड़ा वर्षा की खुशियाली में। खुशबू का है खुला खजाना झाली में ॥1 ॥
हरी भरी भू-स्वर्ग सरीखी लगती है। छायी कैसी छटा रात-उजियाली में ॥2॥
वे न मिले पर उनकी झलक जरूर मिली। चन्दा की चाँदनी, सूर्य की लाली में ॥3 ॥
व्याह रचाते मोर-मोरनी बगिया में। पिहंक पपीहा रहा भरी हरियाली में ॥4॥
10 – वस्त्र हो गया मैला और पुराना है। इसे बदलकर अब नूतन सिलवाना है।॥1॥
कटा-पिटा-भद्दा है, धब्बों वाला है। जर-जर बहुत हो चुका ताना-बाना है ।।2॥
यहाँ रह लिए बहुत ऊब-सी लगती है। अब उस पार जल्द ही हमको जाना है ॥3॥
11 – दुनिया ने दी दुआ हमारे जीवन को। चलते-फिरते उसका फर्ज निभाना है।॥4॥
बहुत दिनों तक याद यहाँ की आयेगी। देखो फिर कब होता वापस आना है।॥5॥
जब तक यहाँ रहा पूरा निर्द्वन्द्व रहा। पाप-पुण्य का मेरे पास खजाना है ॥6॥
धीरे-धीरे दगा दे रहे साथी हैं। यह दस्तूर यहाँ का जाना-माना है ॥7॥
12 – अधूरी हमारी अभी वन्दगी है। मगर कम बची रह गयी जिन्दगी है ॥1॥
ये मक्खी जो मंडरा रही मेरे ऊपर। बताती है कुछ रह गयी गन्दगी है ॥2॥
सभी फूल जीवन के बासी हैं, लेकिन अभी शेष उनमें बहुत ताजगी है ॥3॥
उजाले जो हमने बटोरे थे जलकर। उन्हें पी गयी अपनी ही तीरगी है ॥4॥
लगातार है टीसती मेरे दिल में। पता कुछ नहीं चोट कैसे लगी है ॥5॥
13 – प्रकृति पर विजय आज पाने चले हैं। समुन्दर पे घर अब बनाने चले हैं॥1 ॥ कई बार साबित हुए जो फिसड्डी। उन्हीं को पुनः आजमाने चले हैं॥2॥ हसीनों में गिनती कराने के खातिर । मरद आज बनकर जनाने चले हैं ॥3 ॥ प्रजातन्त्र को मोल लेने के खातिर ।खुले माफियों के खजाने चले हैं॥ 4 ॥
तिजूरी औ बन्दूक का ले सहारा। ये नेता वतन को बनाने चले हैं ॥5॥
14 – यह जीवन है एक, मनुष्य अकेला है। मत-मतान्तरों का तो बहुत झमेला है॥1॥
अनेकान्तवादी कुतार्किक श्रमणों का। यहाँ लग चुका बहुत दिनों तक मेला है ॥2॥
बासठ वादों को विवाद साबित करके । गौतम ने भी तिरसठवां मत ठेला है ॥3॥
ऊँचाई-नीचाई, भेद चेतना का। सत्य ममत्व भूमि का जग अलबेला है।॥4॥
यहीं यहाँ का कुल वैभव रह जायेगा। अन्तिम क्षण में साथ न जाना धेला है ॥5॥
फिर भी जर-जमीन-जोरू के खातिर ही। धक्का-मुक्की, देखो रेलमपेला है ॥6॥
छप्पर, रोटी-नमक, पुराने कपड़ों में। अपना तो हर दिन अलमस्त तबेला है ॥7॥
15 – पाया बहुत कुछ हमने गंवाया भी बहुत कुछ। कुछ हाथ से था दूर, हाथ आया बहुत कुछ ॥1 ॥
संसार-सिन्धु की है एक बिन्दु जिन्दगी।इसको अलग भी रखा, डुबाया भी बहुत कुछ ॥2॥
दुनिया ने तो सुख-चैन की सौगात बहुत दी। पर कभी-कभी इसने सताया भी बहुत कुछ ॥3॥
जिसने हृदय को राग-रंग-प्यार दिया खूब। उसने ही मेरे दिल को जलाया भी बहुत कुछ ॥4॥
सुख-दुःख की, लाभ-हानि की तलवार दुधारी। खुद झेली मैंने और झेलाया भी बहुत कुछ ॥5॥
बेकार समझ जिसको, तवज्जो नहीं दिया। मौके पे वही काम मेरे आया बहुत कुछ ॥७॥
मैं जानता हूँ मैंने किया है बहुत गुनाह। पर ‘आदमी हूँ’ बाद में पछताया बहुत कुछ ॥7॥
16 – आसमां में कहाँ किस किनारे गये। डूब सारे गगन के सितारे गये ॥1॥
इस जगत से सिपाही भी, सम्राट भी। अन्त में हाथ अपना पसारे गये ॥ 2॥
जब भी चाहा कि बस जायें इस गाँव में। सच है हम अपनी ही मौत मारे गये ॥3॥
तुमने जबसे मुझे दूर है कर दिया। दूर जीवन के सुख हमसे सारे गये ॥4॥
साथ मिलकर सभी खाये-खेले जिये। पर सभी आये न्यारे ही, न्यारे गये ॥5॥
जिन्दगी पर्व है, लोग आ-जा रहे। कुछ अभी धार में, कुछ किनारे गये ॥6॥
एक दिन हम भी ऐसे चले जायेंगे। सब कहेंगे कि ‘विभु’ जी हमारे गये ॥7॥
17 – दो-चार दिन के खातिर दुनिया बसाने वाले। आखिर कहाँ हैं जाते ये रोज जाने वाले ॥1॥
खाली न उनका बिस्तर बचता न उनका भोजन। जाने कहाँ से आते ये सोने-खाने वाले ॥2॥
हैं खाली हाथ आते औ खाली हाथ जाते। मरने की जिन्दगी का उत्सव मनाने वाले ॥3॥
18 – इस भीड़ में बैठे हुए हम देख रहे हैं। पाले हैं लोग कितना अहं देख रहे हैं ॥1॥
आया न आदमी जो किसी आदमी के काम। उसको है जिन्दगी का बहम देख रहे हैं॥2॥
सम्वेदना के स्रोत सभी सूख गये हैं। बीमार है ईमान-धरम देख रहे हैं ॥3॥
बाजारवादी दौर है, हर चीज बिक रही। बिकने लगी है लाज-शरम देख रहे हैं॥4॥
दुनिया औ दीन दोनों से महरूम रहे हम। अल्लाह का अब रहमो-करम देख रहे हैं ॥5॥
19 – क्या पता कब कौन झोंका आयेगा। घोसला ये घास का उड़ जायेगा ॥1 ॥
देखते रह जायेंगे ये लोग सब । यार तू ! भी देखता रह जायेगा ॥2॥
छोड़कर ये डाल पंक्षी बावरा ।क्या पता उड़कर कहाँ को जायेगा ॥3 ॥
फूल-फल-छाया विभूषित वृक्ष ये। सूख जायेगा स्वयं, जल जायेगा ॥4॥
20 – दुनिया का कारोबार खड़ा देख रहा हूँ। घर में घुसी बाजार खड़ा देख रहा हूँ ॥1॥
खुद आदमी है आज सरेआम बिक रहा। आदम का चीत्कार खड़ा देख रहा हूँ ॥2॥
दुश्वारियाँ, बेचारगी, दहशत है, खौफ है। अन्धी बनी सरकार, खड़ा देख रहा हूँ ॥3॥
गौतम हों कि ईसा हों, मोहम्मद हों या गान्धी। सब हो गये बेकार, खड़ा देख रहा हूँ ॥4॥
मजबूर आदमी है जमाने के सामने । हर कोई तलबगार, खड़ा देख रहा हूँ ॥5॥
कुछ भी करें हम आप मगर होगा कुछ नहीं। निष्फल सभी उपचार, खड़ा देख रहा हूँ ॥6॥
लेखक – स्व. डा0 शिवनारायण शुक्ल “प्रवक्ता हिंन्दी”
मेरा नाम अपूर्व कुमार है मैंने कम्प्युटर्स साइंस से मास्टर डिग्री हासिल किया है | मेरा लक्ष्य आप लोगो तक हिंदी मे लिखे हुये लेख जैसे जीवन परिचय, स्वास्थ सम्बंधी, धार्मिक स्थलो के बारे मे, भारतीये त्यौहारो से सम्बंधित, तथा सुन्दर मैसेज आदि सुगमता से पहुचाना है. तथा अपने मातृभाषा हिन्दी के लिये लोगो को जागरूक करना है. आप लोग नित्य इस वेबसाइट को पढ़िए. ईश्वर आपलोगो को एक कामयाब इंसान बनाये इसी कामना के साथ मै अपनी वाणी को विराम दे रहा हूँ. अगर हमारे द्वारा किसी भी लेख मे कोई त्रुटि आती है तो उसके लिये मै क्षमाप्रार्थी हूँ. |
हिंन्दी मे सोच पढने लिये आपका बहुत – बहुत धन्यवाद